The war against hunger (in Hindi)

This article is published today in Dainik Jagran (April 9, 2010). Just a correction. In para 3, I had mentioned that as per UNICEF more than 5,000 children die every day in India. The person who translated this article perhaps could not believe this astounding figure and thought that I must have got it wrong, and so changed it to 5,000 per year !

भूख के खिलाफ जंग
http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_6321376.html

देविंदर शर्मा

कोई और ऐसा देश नहीं है, जहां प्रचुरता की शर्मनाक विडंबना देखने को मिले। भारत में खाद्यान्न खुले में सड़ रहा है और करोड़ों लोग भुखमरी के शिकार हैं। साथ ही अगर किसी देश पर भुखमरी और कुपोषण का साया है तो वह प्रमुख उपजों का निर्यात नहीं करता। ऐसा केवल भारत में ही हो सकता है।

अमेरिका में, जहां से भारत आर्थिक नुस्खा प्राप्त करता है, खाद्यान्न को तभी निर्यात किया जा सकता है, जब यह सुनिश्चित हो जाए कि वहां की 30.9 करोड़ आबादी और 16.8 करोड़ कुत्ते और बिल्लियों के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध है। भारत में खाद्यान्न, जिसमें गेहूं, चावल, मक्का, दालें, फल-सब्जियां शामिल हैं, का निर्यात दस्तूर बना हुआ है और सरकार इस व्यापार से होने वाले घाटे की भरपाई के लिए अकसर अनुदान उपलब्ध कराती है। अमेरिका में, जहां हर छह नागरिकों में से एक आदमी भुखमरी का शिकार है, अमेरिका खाद्यान्न अनुदान के रूप में पांच साल में 205 अरब डालर की भारी-भरकम रकम मुहैया कराता है। भारत में, जहां विश्व की सबसे अधिक आबादी भूखी है, खाद्यान्न अनुदान बिल को 56 हजार करोड़ रुपए से कतरकर प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा बिल में 28 हजार करोड़ रुपए कर दिया गया है। ऐसा केवल भारत में ही संभव है।

भूख और कुपोषण से लड़ने में सरकारी योजना की विपुलता केवल कागजों पर ही प्रभावी नजर आती है। महिला और बाल विकास मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और स्वास्थ्य एवं कल्याण मंत्रालय और कृषि व खाद्य मंत्रालय भूख व गरीबी के उन्मूलन के लिए 22 योजनाएं चला रहे हैं। पहले से चल रही इन योजनाओं के इतने व्यापक फलक के बावजूद देश में अधिकाधिक गरीब भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। यूनिसेफ के अनुसार कुपोषण से भारत में हर साल पांच हजार बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हैं। हर रोज 32 करोड़ से अधिक लोग भूखे सोते हैं। यह देखते हुए भी कि विद्यमान कार्यक्रम और योजनाएं गरीबी और भुखमरी में जरा भी सुधार करने में विफल रही हैं, यह सही समय है कि प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा बिल को उचित तरीके से इस्तेमाल किया जाए। अगर हम भूख से लड़ने में विद्यमान तौर-तरीकों में आमूलचूल परिवर्तन नहीं करते तो हम देश को विफल बना देंगे। सबसे पहले तो भूख से निपटने के संबंध में निर्णायक नौकरशाही और विशेषज्ञों तक सीमित बहस को राष्ट्र के बीच ले जाना चाहिए। इसकी शुरुआत के लिए मेरे पास कुछ सुझाव हैं।

सबसे पहले और सबसे जरूरी तो वास्तविक गरीबी रेखा का निर्धारित होना चाहिए। सुरेश तेंदुलकर समिति ने सुझाया है कि 37 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे रह रही है। इससे पहले, अर्जुन सेनगुप्ता समिति कह चुकी है कि 77 प्रतिशत जनता यानी 83.6 करोड़ लोग, रोजाना 20 रुपये से अधिक खर्च करने में सक्षम नहीं हैं। इससे अलावा, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज डीपी वाधवा समिति ने अनुशंसा की थी कि सौ रुपये प्रतिदिन से कम कमाने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे माना जाना चाहिए। यह जानते हुए कि भारत में विश्व के सर्वाधिक गरीब लोग रहते हैं, दोषपूर्ण आकलन से असलियत में भूख को समाप्त नहीं किया जा सकता। भारत गरीबी और भुखमरी पर पर्दा नहीं डाल सकता। इसलिए भारत को भुखमरी और गरीबी में स्पष्ट विभाजक रेखा खींचनी होगी।

सुरेश तेंदुलकर समिति की 37 प्रतिशत आबादी के गरीबी रेखा के नीचे रहने की अनुशंसा वास्तव में नई भुखमरी रेखा के रूप में चिह्निंत की जानी चाहिए, जिसके लिए बेहद कम कीमत पर खाद्यान्न मुहैया कराया जाना चाहिए। इसके अलावा, गरीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों का अर्जुन सेनगुप्ता समिति द्वारा सुझाया गया 77 प्रतिशत का आंकड़ा नई गरीबी रेखा के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इस वर्ग के लिए कम कीमत पर खाद्यान्न की व्यवस्था की जानी चाहिए। इस प्रकार भुखमरी और गरीबी से निपटने में अलग-अलग तरीका अपनाया जाना चाहिए। ब्राजील की तरह भारत को भी शून्य भूख का लक्ष्य निर्धारित कर योजनाएं तैयार करनी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश को खाद्यान्न उपलब्ध कराने वाले छह लाख गांवों के निवासियों को भूखे सोना पड़े। इन गांवों को भूख-मुक्त बनाने के लिए समुदाय आधारित क्षेत्रीय खाद्यान्न बैंकों की स्थापना होनी चाहिए। इस प्रकार की परंपरागत व्यवस्था देश के अनेक भागों में पहले से जारी है।

शहरी केंद्रों में और खाद्यान्न की कमी वाले इलाकों में लाभार्थियों की संख्या घटाने के बजाय सकल सार्वजनिक वितरण व्यवस्था जरूरी है। विद्यमान सार्वजनिक वितरण व्यवस्था का कायाकल्प होना चाहिए और इसके लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। इसके अलावा, सामाजिक और धामिक संगठनों को खाद्यान्न वितरण से जोड़ने की भी बेहद आवश्यकता है। इन संगठनों ने बेंगलूर जैसे शहरों में बेहतरीन काम किया है। साथ ही अगर हम स्वच्छ पेयजल और सीवर व्यवस्था उपलब्ध नहीं कराते तो भूख से त्रस्त जनता को राहत नहीं मिल पाएगी। अकसर दलील दी जाती है कि सरकार प्रत्येक भारतीय नागरिक के भोजन का खर्च नहीं उठा सकती। यह सही नहीं है। अनुमानों के मुताबिक अगर सकल सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को लागू किया जाता है तो देश को अतिरिक्त छह करोड़ टन खाद्यान्न यानी प्रति परिवार 35 किलोग्राम, की जरूरत पड़ेगी। दूसरे शब्दों में देश का एक साल तक पेट भरने के लिए करीब 1.1 लाख करोड़ रुपयों की आवश्यकता होगी। भारत में खाद्यान्न और पैसे का कोई अकाल नहीं है। सर्वप्रथम, गेहूं और चावल के भंडारण की उचित व्यवस्था न होना महंगा पड़ रहा है। अगर खाद्यान्न की बर्बादी रोक दी जाए तो भारत में प्रत्येक परिवार के लिए प्रति माह 45 किलोग्राम खाद्यान्न उपलब्ध हो सकता है। गेहूं और चावल के अलावा खाद्यान्न वितरण में अन्य पौष्टिक मोटे अनाज और दालें भी शामिल की जानी चाहिए।

2010 के बजट में, प्रणब मुखर्जी ने घोषणा की थी कि उद्योग और व्यापार क्षेत्र के लिए करीब पांच लाख करोड़ रुपये की छूट दी गई है। यह लाभ बिक्री कर, उत्पाद कर, आय कर और अन्य करों में छूट के रूप में दिया गया है। वार्षिक बजट करीब 11 लाख करोड़ रुपये का है। जिसका मतलब है कि सरकार बजट में प्रावधान के अतिरिक्त करीब आधी रकम उद्योग को छूट के रूप में दे रही है। मेरा सुझाव है कि उद्योगों को दी जाने वाली इस छूट में से तीन लाख करोड़ रुपए तुरंत वापस ले लिए जाएं। इससे देश की भूखी जनता को भोजन उपलब्ध कराया जाए। साथ ही इससे स्वच्छ पेयजल भी उपलब्ध कराया जा सकेगा और देश भर में सीवर लाइन का जाल भी बिछ जाएगा।

किंतु यह तभी संभव है जब उन नीतियों को बदला जाए जो दीर्घकालीन टिकाऊ खेती पर जोर न देती हों और प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण और भूमि अधिग्रहण की पक्षधर हों। इनके स्थान पर ऐसी नीति लोगू की जाए जो सभी के लिए भोजन सुनिश्चित करे। इसी में सम्मिलित विकास निहित है। भूखी जनता आर्थिक भार है। प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा बिल भारत के आर्थिक नक्शे को इस तरह से पुनर्निर्धारित करने का अवसर प्रदान करता है कि भारत में भूख इतिहास बन जाए।

[देविंदर शर्मा: लेखक कृषि एवं खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं]

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