This article on the proposals being talked about for ensuring food for all appeared in the Hindi daily Rashtriya Sahara today.
पहले भोजन देने का तरीका तो बदलिए
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देविंदर शर्मा (प्रख्यात कृषि विशेषज्ञ)
इसे कहते हैं, नेक इरादों के साथ नरक का रास्ता आसान करना। देश के भूखों और कुपोषितों को जिस तरीके से दो जून भोजन जुटाने का इंतजाम किया जा रहा है, वह भी इसी तरह का भला काम मालूम पड़ता है। लेकिन मेरी चिंता यह है कि प्रस्तावित राष्ट्रीय खाघान्न सुरक्षा अधिनियम भुखमरी खत्म करने के बजाय भूखों को आभासी नरक में कहीं और गहरे धकेल देगा। अगर प्रस्तावित नए अधिनियम का बुनियादी लक्ष्य गरीबी रेखा से नीचे बसर करने वालों की शिनाख्त कर उन्हें महीने में तीन रूपये प्रति किलो के हिसाब से 25 किग्रा.(या 35 किग्रा.) गेहूं या चावल उपलब्ध कराने का है तो मैं समझता हूं कि हम हरेक को भोजन का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए एक व्यापक वैधानिक ढांचा बनाने के मकसद को गंवा रहे हैं।
नहीं पड़ा कोई फर्क
यहां यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि अंतरराष्ट्रीय खाघान्न नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) ने दुनिया के 88 भुखमरी के शिकार देशों की अपनी फेहरिस्त में भारत को 66वें स्थान पर रखा है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली वाले अपने स्वार्थ के लिए भूखों की तादाद में इजाफा करते रहते हैं ताकि उनके हिस्से का कोटा हजम कर सकें। इस गोरखधंधे के खिलाफ याचिका दायर करने पर सर्वोच्च न्यायालय की आ॓र से एक खाघ आयुक्त की बहाली के बावजूद स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ा है। आंगनबाड़ी का गठन करने और स्कूलों में मिड-डे-मील बांटने के साथ-साथ हमारे यहां भूखे और कुपोषितों के आंकड़ों में भारी वृद्धि हो जाती है।
भुखमरी को मिटाने का गलत तरीका
संभवत: भुखमरी को मिटाने का हमारा तरीका ही गलत है। कई मंत्रालयों की तरफ से भुखमरी और कुपोषण मिटाने की 22 राष्ट्रीय योजनाएं चल रहीं हैं, इसके बावजूद भूखों की तादाद सुरसा के मुंह की फैलता जा रहा है। राष्ट्रीय भोजन सुरक्षा विधेयक लाने वाली सरकार से यह पूछने का समय है कि इससे गरीब-गुरबा और भूखों क्या भला होगा? हम भुखमरी मिटाने के ताजा प्रयासों के लिए फिर उसी भ्रष्ट सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर कैसे भरोसा कर सकते हैं, जो पिछले 40 साल से फर्जीवाड़ा करती रही है? ऐसी स्थिति में क्या ताजा विधेयक को ‘नई बोतल में पुरानी शराब’ कहा जाए?
पीडीएस के राशन से ज्यादा की जरूरत
हमें इसका ख्याल नहीं है कि भूखे लोगों को पीडीएस के राशन से ज्यादा की जरूरत है। भोजन के अधिकार के लिए चले अभियान की नजर पीडीएस से आगे नहीं जाती। सवाल है कि क्या 25 के बदले 35 किलोग्राम राशन हर महीने देकर भुखमरी मिटाई जा सकती है? वंचित, विकलांगों और बेघरों को भूखों की सूची में शामिल कर लेने से भुखमरी मिट जाएगी? इनका जवाब है, एक बड़ा ‘न’। हम भुखमरी बढ़ाने की ढांचागत खामियों, जो ज्यादातर खेती और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन से जुड़ी हैं, को दूर किए बिना देश से भुखमरी कदापि नहीं मिटा सकते। यहां मैं आम तौर पर इस बारे में उठने वाली शंकाओं और सवालों के संदर्भ में यह देखने की कोशिश करूंगा कि कैसे हम भोजन के अधिकार अधिनियम को प्रभावी और सार्थक बना सकते हैं?
गलत नीतियों का खामियाजा
इनमें पहला सवाल है, जब भुखमरी मिटाने के लिए पहले से ही देश में कई योजनाएं हैं तो फिर हमें एक नए राष्ट्रीय भोजन सुरक्षा अधिनियम की जरूरत क्यों आ पड़ी? यह सही है कि भूख से लड़ने वाली सरकारी योजनाओं की भारी-भरकम सूचियां हैं और इनके लिए हर साल बजट में बड़ी राशि की व्यवस्था भी की जाती है। इसके बावजूद गरीब की दशा भूख से मरने वालों की हो जाती है। दुनिया के भूखों की एक तिहाई से ज्यादा आबादी अपने देश में रहती है। यूनिसेफ बताता है कि भारत में हर रोज 5,000 हजार बच्चे कुपोषण से दम तोड़ जाते हैं। इसलिए नई योजना की घोषणा से भुखमरी मिटाने का मकसद हल नहीं होगा। भुखमरी बुनियादी रूप से हमारी गलत नीतियों और अपनी गड़बड़झाला वितरण प्रणालियों का खमियाजा है। इसलिए केवल ठोक-पीटकर चीजों को दुरूस्त करने के तरीके से काम नहीं चलने वाला। इसी तरह राशन कार्ड के बजाय ‘भोजन का अधिकार’ का मोनोग्राम लगा देने भर से कोई मकसद नहीं सधने वाला है। अगर हम इसी तरह उधार के विचार पर अमल करते रहे तो भुखमरी दोगुनी-चौगुनी अपनी माया का विस्तार करती रहेगी। मैं भूख से लड़ने वाली किसी भी सही योजना का कट्टर समर्थक हूं लेकिन इतना ही कहना है कि भुखमरी को मिटाने की जारी योजनाओं के दुखद हश्र को देखते हुए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भोजन अधिकार अधिनियम को व्यावहारिक और दोषरहित तरीके से लागू किया जाए। इसके लिए जरूरी है कि भूख मिटाने के इस काम से चंद नौकरशाहों और स्वयंभू विशेषज्ञों को बाहर रखा जाए। राज्यों के निकायों के जरिए पूरे देश को भरोसे में लिया जाए।
तरीकों में फर्क की वजह
सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर बनी जस्टिस बधवा कमेटी ने पीडीएस को बोगस और कई राज्यों में एकदम फेल करार दिया था। उसके मुताबिक यह प्रणाली भ्रष्ट, दोषपूर्ण और अपर्याप्त है। पीडीएस के अधिकांश खाघान्नों की कालाबाजारी हो जाती है। इसके जरिये यह पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार तक पहुंचा दिया जाता है। जस्टिस बधवा कहते हैं कि पीडीएस तक पहुंचने से पहले ही उसके कोटे के 80 फीसद राशन की कालाबाजारी हो जाती है। इसके अलावा बेईमानीपूर्ण धंधे के बारे में भी बहुत से आकलन हैं। इनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि पीडीएस अपने आप में फेल है। यह दरअसल गरीबों और भूखों के साथ क्रूर मजाक है। इसके बावजूद जस्टिस बधवा कमेटी में शामिल विशेषज्ञ और कार्यकर्ता मुझे किसी न किसी रूप में पीडीएस से संतुष्ट लगे क्योंकि यह उनका सियासी कद बढ़ा देता है। यही वह प्राथमिक वजह है जिससे कि सरकार की बनाई योजनाओं और नागरिक समाज के एक तबके द्वारा सुझाए जा रहे तरीकों में बहुत फर्क नहीं होता। सार्वजनिक वितरण प्रणाली केवल ठोक-ठाक करने से कारगर नहीं हो सकती, इसे आमूल-चूल बदलने की जरूरत है। इसके लिए एक तेज और सक्षम प्रणाली बनाई जानी चाहिए। इसके साथ ही, ग्रामीण इलाकों में वितरण प्रणाली का क्षेत्र और पहुंच नियंत्रित की जानी चाहिए, जहां दीर्घकालीन भोजन सुरक्षा से संबंधित जनोन्मुखी कार्यक्रम ज्यादा से ज्यादा चलाया जा सकता है।
यथार्थवादी गरीबी-रेखा तय करने की चुनौती
यहां उल्लेखनीय है कि मंत्रियों के समूह ने योजना आयोग को गरीबों की सही तादाद तय करने का निर्देश दिया है। सवाल उठता है कि क्या इसके बावजूद वास्तविक जरूरतमंदों तक भोजन पहुंचाना संभव हो पाएगा? इस संदर्भ में पहली और अहम बात है कि एक यथार्थवादी गरीबीरेखा तय करना। तेंदुलकर कमेटी के आकलन में देश की 37 फीसद आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। इसके पहले अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने कहा था कि देश की 77 फीसद आबादी रोजाना 20 रूपये तक खर्च करने की औकात नहीं रखती। अब जस्टिस बधवा कमेटी का मानना है कि रोजाना 100 रूपये से कम कमाने वाला देश का हर व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे आता है। दूसरी आ॓र योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया को लगता है कि तेंदुलकर कमेटी की 37 फीसद गरीबी रेखा वाली आबादी की सिफारिश ज्यादा ‘मुनासिब’ है।
भुखमरी की नई लाइन की जरूरत
विडंबना यह है कि असंख्य कमेटियों और आर्थिक सर्वेक्षणों ने इस बात जोर नहीं दिया था कि अगर बढ़ती भुखमरी की भ्रूणहत्या करनी हो तो गरीबी रेखा के मानक में तुरंत बदलाव लाकर उसके आंकड़े को दुरूस्त करना होगा। भुखमरी के वजूद पर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे नीति-नियंता गरीबी रेखा के किस प्रतिशत को ‘मुनासिब’ मानते हैं। इस बारे में मेरा सुझाव है कि दो लाइनें खींची जाएं। पहली कतार में उन्हें रखा जाए जो एकदम भुखमरी के कगार पर हैं और दूसरी लाइन में वे आएं जो गरीब और कुपोषित हैं। तेंदुलकर कमेटी की सिफारिश को ‘भुखमरी की नई लाइन’ माना जाए, जिसके तहत आपातकालीन स्थिति में सस्ती दर पर भोजन मुहैया कराने की व्वस्था की जानी चाहिए। वहीं अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की 77 फीसद वाली सिफारिश को नई गरीबी रेखा माना जाना चाहिए। अगर हम इन आकलनों को एक बार स्वीकार कर लेते हैं तो भूख और गरीबी से निबटने के हमारे तरीके अलग और वास्तविक होंगे।
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