किसानों की बर्बादी की योजना

इससे अधिक नुकसानदेह और कुछ नहीं हो सकता। चीनी से नियंत्रण हटाने की योजना है। इससे गन्ना उगाने वाले किसान शुगर मिलों की दया पर निर्भर हो जाएंगे। रंगराजन कमेटी द्वारा गन्ने के स्टेट एडवाइस्ड प्राइस (एसएपी) को खत्म करने के सुझाव के बाद अब किसानों को फेयर एंड रेमुनेरेटिव प्राइस (एफआरपी) पर निर्भर रहना होगा। एफआरपी का निर्धारण केंद्र सरकार करती है और यह राज्य सरकारों द्वारा तय किए जाने वाले मूल्य से काफी कम होता है। एक प्रकार से यह कदम गन्ने की पैदावार और चीनी के उत्पादन को बाजार के नियंत्रण में लाने के उद्देश्य से उठाया गया है। यही नीति अब गेहूं और धान पर भी लागू की जा रही है। पांच सालों में पहली बार इस साल गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई बढ़ोतरी न करने के बाद सरकार इस बात पर विचार कर रही है कि क्या गेहूं के दाम बढ़ाने की आवश्यकता है और क्या गेहूं की खरीद को बाजार की अर्थव्यवस्था से जोड़ देना चाहिए। गेहूं के दाम न बढ़ाकर सरकार संभवत: गेहूं से ध्यान हटाकर नकदी फसल पर केंद्रित करना चाहती है।

इस फैसले का असर किसानों के साथ-साथ करोड़ों भूखे लोगों पर भी पड़ेगा। न्यूनतम मूल्य हरित क्रांति की विशिष्टता थी, जिसने खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि में बड़ी भूमिका निभाई। मूल खाद्यान्न से न्यूनतम समर्थन मूल्य वापस ले लेने का मतलब होगा-खाद्यान्न के निर्यात में इजाफा। यह चरणबद्ध तरीके से हो रहा है। एक ऐसे समय जब वैश्विक भूख सूचकांक 2012 में 79 देशों की सूची में भारत 65वें स्थान पर है, खाद्यान्न एवं सार्वजनिक वितरण राज्य मंत्री केवी थॉमस फरमा रहे हैं कि भारतीय खाद्य निगम अब जल्द ही सट्टा बाजार में गेहूं का व्यापार करेगा। फॉर्वर्ड मार्केट कमीशन से जरूरी अनुमति की मांग करते हुए मंत्री ने कहा कि बाजार को मूल्य जोखिम प्रबंधन में आर्थिक आधार पर काम करना चाहिए। इससे यह मतलब निकलता है कि वह खुला बाजार बिक्री योजना के स्थान पर सट्टा बाजार में व्यापार करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में, सट्टा बाजार भारतीय खाद्य निगम के सामने कुछ लाभ कमाने का अवसर पेश करेगा, जिसको वापस खाद्यान्न खरीद में लगा दिया जाएगा। इस प्रकार सरकार को खाद्यान्न सब्सिडी में कटौती का मौका मिल जाएगा। यह है सरकार की योजना।

यह इतना आसान नहीं है जितना नजर आता है। खाद्यान्न की सरकारी खरीद के साथ-साथ एफसीआइ की एक भूमिका खाद्यान्न की महंगाई पर अंकुश लगाना भी है। जब भी घरेलू बाजार में गेहूं और धान की कीमतें बढ़ती हैं एफसीआइ खुले बाजार में खाद्यान्न बेचकर कीमतों को नीचे लाता है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्यान्न एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार जून 2011 से जुलाई 2012 तक एक वर्ष में भारत में गेहूं के दामों में सूडान के बाद विश्व में सबसे अधिक बढ़ोतरी दर्ज की गई। धान के संदर्भ में विश्व में भारत तीसरे स्थान पर रहा और वह भी तब जब भारत के भंडारण गृहों में भारी मात्रा में अतिरिक्त खाद्यान्न उपलब्ध था।

बाजार मूल्य पर दबाव कम करने के लिए जुलाई-अगस्त में थोक उपभोक्ताओं तथा छोटे निजी व्यापारियों के लिए एफसीआइ ने 26.02 लाख टन गेहूं की टेंडर के आधार पर बिक्री की थी। इससे घरेलू बाजार में गेहूं के दामों को कम करने में मदद मिली। दामों को कम करने में एफसीआइ की इस नाजुक भूमिका में बदलाव के सरकार के फैसले में मुझे कोई औचित्य नजर नहीं आता। सरकार की नई योजना से एफसीआइ खाद्यान्न के दाम घटाने के बजाय बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाएगी। सट्टेबाजी में उतरने के बाद पहले से ही ऊंचे रेट फिक्स करके एफसीआइ महंगाई बढ़ाने के सबसे बड़े खिलाड़ी के रूप में उभरेगा। यह खाद्यान्न की भारी मात्रा के बल पर बाजार का रुख मोड़ सकने की ताकत रखता है।

इसका सीधा असर खाद्यान्न के दामों में तीव्र वृद्धि के रूप में देखने को मिलेगा। अंतरराष्ट्रीय बाजारों पर एक नजर डालकर देखा जाए कि इनमें हमारे लिए क्या सीख हो सकती है। 2007 में जब वैश्विक खाद्यान्न संकट चरम पर था और 37 देशों में खाद्यान्न को लेकर दंगे भड़क रहे थे, संयुक्त राष्ट्र की विशेष रिपोर्ट में कहा गया था कि खाद्यान्न के दाम बढ़ने के पीछे सबसे बड़ा हाथ सट्टेबाजी का था। खाद्यान्न की कीमतें मांग और आपूर्ति से तय नहीं हो रही थीं, बल्कि वित्तीय अटकलें और सट्टेबाजी में निवेश इनकी बढ़ोतरी के कारक थे। मानवीय पीड़ा और भूखे पेट की कीमत पर कुछ कृषिव्यापार क्षेत्र की बड़ी कंपनियों ने मोटा मुनाफा कमाया।
2012 के उत्तरार्ध में एक बार फिर वैश्विक खाद्यान्न की कीमतों में जबरदस्त उछाल देखने को मिल रहा है। अमेरिका में सूखे की आशंका और रूस व उक्रेन में खाद्यान्न उत्पादन में कमी से खाद्यान्न में व्यापार करने वाली विश्व की सबसे बड़ी कंपनी कारगिल मालामाल हो गई। एक अन्य बड़ी कंपनी ग्लेनकोर भी इसी राह पर चल रही है।

एफसीआइ को व्यापारिक इकाई में बदलने में गंभीर खतरे निहित हैं। भारत जैसे विशाल देश में, जिस पर विश्व में सबसे अधिक भूखी आबादी का दाग लगा है, एफसीआइ मुख्यत: दो भूमिकाएं निभाता है। पहली भूमिका यह है कि यह किसानों से पहले से तय की गई कीमतों पर खाद्यान्न की खरीदारी करता है। भारतीय किसानों के लिए सरकारी उसकी फसल का लाभकारी मूल्य दिलाती है। यद्यपि हर साल 22 फसलों का खरीद मूल्य घोषित किया जाता है, एफसीआइ केवल गेहूं और धान की खरीद ही करता है। गेहूं और धान का उत्पादन बढ़ने का यही प्रमुख कारण है। सरकारी खरीद बंद करने और एफसीआइ के बाजार में दखल देने की नई भूमिका से भारत में कृषि बर्बाद हो जाएगी। देश के जिन भागों में एफसीआइ सक्रिय नहीं है, वहां किसान बहुत कम कीमत पर गेहूं और धान बाजार में बेचने को मजबूर हैं। इस प्रकार एफसीआइ तो पहले से ही मूल्य जोखिम प्रबंधन की जिम्मेदारी निभा रहा है। अमेरिका के अनुभव से स्पष्ट हो जाता है कि इन आर्थिक जिम्मेदारियों को निभाने की सट्टा बाजार से की जा रही अपेक्षाएं महज खयाली पुलाव हैं।

अमेरिका के शिकागो में विश्व का सबसे बड़ा कमोडिटी एक्सचेंज है, इसके बावजूद अमेरिका में सट्टेबाजी से किसानों का कोई भला नहीं हुआ। कृषि को लाभकारी बनाने में सट्टेबाजी की विफलता के कारण ही अमेरिका किसानों को भारी भरकम सब्सिडी प्रदान करता है। फूड बिल 2008 में पांच साल के लिए 307 अरब डॉलर (करीब 16 लाख करोड़ रुपये) की सब्सिडी का प्रावधान किया गया था। इसमें संदेह नहीं कि एफसीआइ में भ्रष्टाचार व्याप्त है, किंतु इसे खत्म कर देना एक बड़े विनाश की ओर ले जाएगा। इससे भारत फिर से खाद्यान्न आयातक देश बन जाएगा और खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। जाहिर है, इससे भुखमरी तो बढ़ेगी ही।

[लेखक देविंदर शर्मा, कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं]

Source: Dainik Jagran, Nov 23, 2012.
http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_9873871.h

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