जैसे-जैसे 2013 का बजट नजदीक आ रहा है, मैं यह बात रोज सुनता हूं कि गरीबों को दी जा रही सब्सिडी खत्म होनी चाहिए। एक ओर जहां बहुसंख्यक आबादी की सामाजिक सुरक्षा को 'फ्री लंच' के तौर पर देखा जा रहा है, वहीं शायद ही कोई पैनेलिस्ट या अखबार के लेखक इंडस्ट्री को साल-दर-साल दिए जा रहे 'फ्री मंथली राशन' की कभी बात करते हों। फर्क सिर्फ इतना-सा है कि अमीरों को दी जा रही रियायत सब्सिडी नहीं कहलाती। इन्हें विकास के लिए इंसेंटिव्ज कहा जाता है। सब्सिडी एक बुरा शब्द बन गया है, जबकि इंसेंटिव सम्मान के साथ बोला जाता है।
शायद ही ऎसा कोई दिन गुजरता हो, जब अखबारों के पहले पन्ने पर, टीवी कार्यक्रमों में गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी कम करने के तर्क और स्टोरी सुनने-देखने को न मिलती हों। मुझे मिट रोमनी के उस दावे की याद आती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि 47 फीसद अमरीकी कर नहीं देते, इसलिए उन्होंने समझा कि रिपब्लिकन को उनके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। वर्ष 2012-13 में जहां कुल बजट खर्च 14.9 लाख करोड़ था, सब्सिडी के लिए 1.78 लाख करोड़ रूपये रखे गए थे और दुहाई यह दी जा रही है कि राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए सब्सिडी में कटौती की जाए।
गौरतलब है कि इन सब्सिडीज का एक बड़ा हिस्सा भोजन, फर्टिलाइजर और पेट्रोलियम को जाता है। पिछले कुछ महीनों से केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम सब्सिडी से लगातार हाथ पीछे खींचे हैं। पहले पेट्रोल को नियंत्रण मुक्त किया गया और अब हाल ही में डीजल को आंशिक तौर पर नियंत्रण मुक्त किया गया है। रियायती एलपीजी सिलेंडरों पर दी जाने वाली सब्सिडी भी कम कर दी गई है। केरोसीन पर सब्सिडी अभी बची हुई है। फूड और फर्टिलाइजर की बात करें, तो डायरेक्ट कैश ट्रांसफर समेत सभी तरह की तिकड़म प्रस्तावित हैं। रेल किराये में बढ़ोतरी की जा चुकी है। सरकार को किराया बढ़ाने के बाद सालाना 66 सौ करोड़ रूपये आने की उम्मीद है। इसलिए सभी प्रकार के 'फ्री लंचेज', जैसा कि प्रमुख अर्थशास्त्री और कंसल्टेंसी फर्म एग्जीक्युटिव टेलीविजन पर लगातार कहते हैं, धीरे-धीरे कम किए जा रहे हंै।
लेकिन जब बात इंडस्ट्री की हो, तो न सिर्फ 'ब्रेड एंड बटर', बल्कि पूरे महीने भर का राशन मुफ्त मुहैया कराया जा रहा है।
फर्क सिर्फ इतना-सा है, जैसा कि मैंने पहले भी दोहराया कि इन्हें मिलने वाली रियायत को सब्सिडी नहीं, बल्कि 'इंसेंटिव्ज फॉर ग्रोथ' का नाम दिया जाता है। यानी अमीरों को बहुत चतुराई के साथ ग्रोथ की आड़ में सब्सिडी परोसी जा रही है। मैं एक हालिया उदाहरण देना चाहूंगा। प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन ने यह प्रस्ताव दिया कि भारत में 'सुपर-रिच' लोगों पर मौकाूदा 30 फीसद की दर की बजाय 40 फीसद की उच्च दर से कर वसूलना चाहिए। उनके यह कहने के बाद बवाल-सा मच गया। इंडिया इंक और बिजनेस टीवी चैनल व अखबारों के लेखकों ने एक लय में 'सुपर-रिच' तबके को उच्च कर स्लैब में न लाने के लिए अभियान छेड़ दिया। इसके बाद एनआरआई अर्थशाçस्त्रयों ने भी भारतीय अखबारों में भागीदारी दिखाते हुए अपने कॉलमों के जरिये कॉरपोरेट मंत्र का राग अलापा।
अगर आयकर की सीमा को 'सुपर-रिच' तबके पर बढ़ा दिया जाए, तो सरकार को सालाना 22 हजार करोड़ का राजस्व प्राप्त होगा। अभी कुछ दिनों पहले स्टॉक मार्केट 20 हजार के आंकड़े को पार कर गया, क्योंकि सरकार ने 'गार' को 2016 तक के लिए टाल दिया। अकेले इस कदम से मॉरीशस जैसे टैक्स स्वर्ग जैसे देशों से आने वाले काले धन पर लगाम लग जाती। फिक्की और सीआईआई के अध्यक्ष समेत बड़े बिजनेस घरानों के मुखिया साफ तौर पर खुश दिखाई दिए कि गार को टाल दिया गया है।
दूसरे लफ्जों में कहें, तो विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा आ रहे निवेश पर कर छूट जारी रहने से वे बड़े खुश हुए। मेरा मानना है कि अगर इसका क्रियान्वयन हो जाता, तो और कुछ नहीं तो यह 50 हजार करोड़ से ज्यादा का सफाया कर देता। लेकिन अमीरों को मुफ्त मासिक राशन मिलने तक तो यथास्थिति कायम ही रहेगी। वैसे, यह अमीर जमात ही है, जो कर कानूनों में से गलियां निकालकर जायज कर चुकाने से बचती है। केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने गुस्सा जाहिर किया था कि कर अदा करने वाले 3.5 करोड़ लोगों में से महज 14.6 लाख लोगों ने ही अपनी आय सालाना 10 लाख से ज्यादा दिखाई थी। यानी जाहिर है कि कर कानूनों को लेकर एक बड़ी अनियमितता है और कर कानूनों की पालना के लिए सभी प्रयास किए जाने बेहद जरूरी हैं। पर बड़ा सवाल है कि क्या अमीरों से पूरा कर वसूलने को लेकर गंभीर प्रयास हुए हैं? आपका अनुमान भी मेरे जैसा ही होगा।
नहीं, कभी नहीं... आखिरकार अमीरों को उनका मुफ्त राशन मिलते रहना जरूरी है। गौर करने लायक बात है कि 2012 के बजट में इंडिया इंक को 5.29 लाख करोड़ रूपये की कर छूट- जिसे 'इंसेंटिव फॉर ग्रोथ' कहा जाता है- मिली। यह राशि उस राजकोषीय घाटे को खत्म करने के लिए काफी है, जिसका रोना चिदम्बरम रोते रहे हैं। कर छूट के अलावा इनके द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की लूट में भी सरकार सहायक रही है।
उद्योगों द्वारा जमीन हथियाने को लेकर सरकारें जिस तरीके से नियम-कानूनों को मोड़ती हैं, वह भी एक तरह की सब्सिडी ही है। यह सब कुछ उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के नाम पर किया जाता है। अगर उद्योगपति उद्यमी हैं, तो क्या एक किसान, शिल्पकार, एक दुकानदार और संघर्षरत आम आदमी उद्यमी नहीं है? ऎसा कैसे हो सकता है कि उसे किसी सहारे की जरूरत नहीं है और सिर्फ एक अमीर ही सरकारी खजाने पर जीने का हकदार है?
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