देविंदर शर्मा
हर बार जब आप दाल पकाना चाहते हैं तो आपको दो बार सोचना पड़ता होगा। एक समय था जब दाल-रोटी आम आदमी का भोजन था। खाद्य पदार्थो की आसमान छूती कीमतों के बाद अब गरीब लोगों की प्लेट से दाल भी गायब हो गई है। 40 साल से अधिक समय से दाल का उत्पादन स्थिर बना हुआ है। इस दौरान दाल का उत्पादन 140 से 160 लाख टन प्रति वर्ष रहा है। मांग और आपूर्ति के अंतर को पाटने के लिए भारत को म्यांमार, कनाडा और आस्ट्रेलिया से 30-40 लाख टन दाल का आयात करना पड़ता है। आप को हैरानी हो रही होगी कि भारत हर साल 30-40 लाख टन दाल का उत्पादन क्यों नहीं बढ़ा सकता। मुख्यमंत्रियों के कार्यकारी समूह ने सुझाया है कि घरेलू मांग की पूर्ति के लिए भारतीय कंपनियों को विदेश में भूमि खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, ताकि वहां वे दाल का उत्पादन कर सकें। इस साल अप्रैल में गठित कार्यकारी समूह की अध्यक्षता हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा कर रहे हैं, जबकि इसमें पंजाब, बिहार और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री शामिल हैं।
कार्यकारी समूह के मसौदे के अनुसार, 'हमें कम से कम 20 लाख टन दलहन और 50 लाख टन तिलहन के लिए विदेश में जमीन खरीदने के विकल्पों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।' मेरे ख्याल से इस अनुशंसा से अधिक मूर्खतापूर्ण कुछ हो ही नहीं सकता। न ही इस सुझाव में कुछ नयापन है। कई साल पहले तत्कालीन कृषि मंत्री बलराम जाखड़ ने भी इसी प्रकार का सुझाव दिया था, जब उन्होंने भारतीय कंपनियों को अफ्रीका में दालों की खेती के लिए कांटेक्ट फार्मिंग करने को कहा था। इस प्रकार के तमाम प्रलोभक विचार उस समय उभर रहे हैं, जब सरकारी नीतियों से समझदारी गायब हो रही है। विदेश में दालों के खेती कर उसे जहाज द्वारा भारत लाने का विचार भी ऐसा ही है। ऐसे समय में जब भारत में किसान भयावह हालात से गुजर रहे हैं, जब वैकल्पिक व्यवस्था होने पर 40 फीसदी से अधिक किसान खेती को तिलांजलि देने को तैयार हैं, तो दालों का घरेलू उत्पादन बढ़ाना ही खेती को लाभदायक बनाने का एकमात्र हल है। मुख्यमंत्रियों के कार्यकारी समूह की अनुशंसाएं न केवल मूर्खतापूर्ण हैं, बल्कि घातक भी हैं। मतलब यह है कि कृषि पदार्थो का उत्पादन बढ़ाने के लिए देश अपने किसानों पर निर्भरता धीरे-धीरे घटा लेगा। ठीक इसी के लिए कृषि-व्यापार क्षेत्र की कंपनियां पुरजोर प्रयास कर रही हैं।
सर्वप्रथम, हमें इस पर विचार करना चाहिए कि भारत अधिक दाल का उत्पादन क्यों नहीं कर पा रहा है? आखिरकार, अतिरिक्त 30-40 लाख टन दालों का उत्पादन कोई बड़ी समस्या नहीं है। कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केबिनेट कमिटी ऑन इकॉनॉमिक अफेयर्स ने खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 30 फीसदी की बढ़ोतरी की घोषणा की है। घोषणा का उद्देश्य दालों का उत्पादन बढ़ाना है। इसी के साथ सरकार ने सरकारी खरीद में दाल बेचने वाले किसानों को पांच सौ रुपये प्रति क्विंटल अतिरिक्त मूल्य देने का फैसला भी किया है। दूसरे शब्दों में, पांच सौ रुपये प्रति क्विंटल उन किसानों का बोनस है, जो दाल का उत्पादन कर इसे सरकार को बेचेंगे। अतिरिक्त भुगतान से खुदरा कीमतें नहीं बढ़ेंगी क्योंकि यह खर्च सरकार की तरफ से होगा। इससे सरकार पर एक हजार से दो हजार करोड़ रुपये का भार पड़ेगा।
किसानों को सम्मानीय मूल्य देने से सरकार की मंशा साफ हो जाती है कि यह किसानों को दालों की खेती के लिए प्रोत्साहित कर इसकी पैदावार बढ़ाना चाहती है। किंतु सरकार जिस चीज का अनुमान नहीं लगा पा रही है, वह यह कि न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाना तो दालों की पैदावार में वृद्धि का मात्र एक उपाय है। हमें यह समझना चाहिए कि मूल्य बढ़ने से ही कोई जादू नहीं होने जा रहा है। अगर अधिक मूल्य से ही पैदावार में वृद्धि संभव होती, तो यह बहुत पहले हो चुका होता। अधिक मूल्य के साथ-साथ ऐसा वातावरण भी बनाना होगा, ताकि किसान दलहन और तिलहन की खेती में अधिक निवेश कर सकें। और इस क्षेत्र में भारत में किसानों के लिए कुछ नहीं किया गया है। इसे स्पष्ट शब्दों में कहें तो भारत में दलहन और तिलहन की पैदावार बढ़ाने के लिए नई प्रौद्योगिकी लाने की आवश्यकता नहीं है। कानपुर स्थित नेशनल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर पल्सेज और अन्य अनुसंधान केंद्र उन्नत दालों की 400 से अधिक किस्में विकसित कर चुके हैं। अब समस्या यह है कि इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि गेहूं और चावल की पैदावार बढ़ने का कारण उन्नत किस्मों का विकास नहीं है, बल्कि नीतिकारों ने इन दो महत्वपूर्ण फसलों को बढ़ावा दिया है। अधिक उपज से उत्पादन बढ़ने की उम्मीद रहती है। किंतु जैसे ही फसल आती है, इनकी कीमतें गिर जाती हैं।
न्यूनतम समर्थन मूल्य के माध्यम से सरकार किसानों को एक सुनिश्चित न्यूनतम कीमत का आश्वासन देती है। निर्धारित मूल्य निश्चित तौर पर किसानों के लिए फायदेमंद है, अन्यथा फसल के समय बाजार में व्यापारी कीमतें गिराकर किसानों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। साथ ही, सरकार ने मंडियों के माध्यम से सरकारी खरीद का तंत्र भी विकसित किया। निजी व्यापारियों द्वारा फसल न खरीदे जाने पर इसे भारतीय खाद्य निगम और ऐसी ही अन्य सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीद लिया जाता है।
इसका मतलब है कि किसानों को सुनिश्चित मूल्य और सुनिश्चित बाजार मिल जाता है। वे जानते हैं कि फसल उगाने के लिए वे जो मेहनत-मशक्कत कर रहे हैं वह बेकार नहीं जाएगी। और मुख्य रूप से इसके कारण ही चार प्रमुख फसलों, गेहूं, चावल, गन्ना और कपास की पैदावार बढ़ी है। केवल इन चार फसलों पर ही बाजार आश्वस्त है, यह चाहे भारतीय खाद्य निगम के कारण हो, या कॉटन कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया अथवा गन्ना मिलों के कारण। मुख्यत: इसी कारण दालों का उत्पादन नहीं बढ़ पाया है। यद्यपि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य तो घोषित कर रही है, किंतु पैदावार की सरकारी खरीद का कोई तंत्र विकसित नहीं किया गया है। सुनिश्चित खरीद न होने के कारण किसानों को बाजार में सस्ते दामों में उपज बेचनी पड़ती है। इसलिए किसानों का दालों की खेती से रुझान कम हो रहा है।
भारतीय कंपनियों को विदेश में खेती करने के लिए प्रोत्साहित करने के बजाय जरूरत इस बात की है कि देश में ऐसे क्षेत्रों को चिह्निंत किया जाए, जहां दलहन की खेती को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। और इसके बाद मंडियों का जाल बिछाया जाए। न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी के साथ-साथ सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि दलहन की पूरी उपज की सरकारी खरीद की जाएगी। बस सुनिश्चित बाजार उपलब्ध कराने भर की देर है, देश में दालों की कमी नहीं रहेगी। इससे देश में सिंचाई के अल्प साधन वाले इलाकों के किसानों को भी लाभ होगा। दालों की पैदावार के लिए बहुत उपजाऊ जमीन और अधिक पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती। साथ ही यह मिट्टी में नाइट्रोजन का स्तर भी बढ़ाती हैं। दालों की खेती को बढ़ावा देने से देश टिकाऊ खेती की दिशा में बढ़ेगा और किसान भी गरीबी के फंदे से निकल पाएंगे। हमें अपने किसानों की तरफ सहायता का हाथ बढ़ाना चाहिए, न कि विदेशी किसानों की ओर।
[देविंदर शर्मा: लेखक कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं]
http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_6496285.html
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