आयातित शिक्षा पर सवाल

Dainik Jagran published my analysis on imported education in its yesterday's edition (Mar 26, 2010). I am pasting the article below.

Often during translation, the meaning of some particular words or acronyms are conveyed differently. In para 4 below, I had talked about the 'land grant' system of education in America. It does not mean that the US was providing land for education as this article depicts. Please keep that in mind while you read this article.

आयातित शिक्षा पर सवाल

देविंदर शर्मा

कुछ साल पहले मुझे लंदन में एक बैठक में आमंत्रित किया गया था, जिसमें विमर्श का मुद्दा था कि इंग्लैंड विकासशील देशों में टिकाऊ कृषि को प्रोत्साहन कैसे दे सकता है। यह बैठक इंग्लैंड के तत्कालीन गृह सचिव हिलेरी बेन द्वारा बुलाई गई थी, जिसमें करीब 15 लोगों ने भाग लिया था। इंग्लैंड के कई संगठनों ने अन्य विकासशील देशों के साथ-साथ भारत में टिकाऊ कृषि में सहयोग देने संबंधी अनेक प्रस्ताव और परियोजनाएं पेश कीं। इसके बाद हिलेरी बेन ने मुझसे सुझाव मांगे। मैंने कहा, 'मेरी राय में ब्रिटिश कृषि पूरी दुनिया में पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाली कृषि व्यवस्था में से एक है। मुझे नहीं लगता कि आपके विश्वविद्यालय और निजी संस्थान इतने काबिल हैं कि वे भारतीय कृषकों और संगठनों को टिकाऊ खेती के बारे में कुछ सिखा सकें।'

यह सुनकर हिलेरी बेन चौंक गए और मुझसे पूछा कि इंग्लैंड की कृषि व्यवस्था में सुधार कैसे संभव है। मैंने जवाब दिया, 'इंग्लैंड की सरकार को भारतीय किसानों को वहां बुलाना चाहिए, जिन्होंने टिकाऊ खेती व्यवस्था में शानदार प्रदर्शन किया है। और उनसे ही सीखने की कोशिश करनी चाहिए।' कहने की आवश्यकता नहीं है कि बैठक वहीं समाप्त हो गई। इससे पहले हम कपिल सिब्बल के तुरही बजाकर विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने कैंपस खोलने की अनुमति देने के मुद्दे पर आएं, मैं आपका ध्यान उस नुकसान की ओर खींचना चाहूंगा, जो आयातित कृषि शिक्षा और अनुसंधान के कारण भारत को उठाना पड़ा है। पहला कृषि विश्वविद्यालय उत्तराखंड के पंतनगर में खोला गया था। इसके बाद से 50 से अधिक कृषि विश्वविद्यालय गठित किए जा चुके हैं।

कृषि अनुसंधान और शिक्षा के क्षेत्र में 50 साल की उपलब्धियों से बेहतर कोई अन्य पहलू नजरिए में परिवर्तन को स्पष्ट नहीं कर सकता। कृषि अनुसंधान व शिक्षा व्यवस्था का ढांचा अमेरिका की आवश्यकताओं के अनुरूप तैयार किया गया था न कि भारतीय कृषि की समस्याओं को दूर करने के लिहाज से। हमें बताया गया कि हमारी कृषि निम्न स्तरीय, पिछड़ी और नाकारा है। यह हमारे कृषि विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। इन विश्वविद्यालयों में अमेरिकी कृषि पर आधारित पाठ्यक्रम होता है। बताया जाता है कि अगर आप भारतीय कृषि को सुधारना चाहते हैं तो अमेरिकी कृषि माडल को अपनाना होगा। जबकि हमने अनुभव से सीखा है कि इसी रास्ते पर चलने से हम आज कृषि के सबसे बड़े और गहरे संकट में फंस गए हैं।

ऐसे बहुत से लोग हैं जो यह सोचते हैं कि अमेरिकी कृषि अनुसंधान और शिक्षा व्यवस्था से भारत को बड़ा लाभ हुआ है। मैं इससे इनकार नहीं करता। आखिरकार, हरित क्रांति हुई और इससे देश खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हुआ। विद्वान इस पर माथापच्ची कर रहे हैं कि हरित क्रांति कितनी सफल रही, किंतु इस तथ्य पर वे विचार नहीं कर रहे हैं कि इसी प्रौद्योगिकी की वजह से वर्तमान कृषि संकट पैदा हुआ है। चाहे हम स्वीकार करें या न करें, सच्चाई यही है कि यूएस एजेंसी फार इंटरनेशनल डेवलपमेंट के तहत अमेरिका में जिस तरह शिक्षण संस्थान के लिए सरकारी जमीन अनुदान में दी जाती है, ऐसा करने पर भारत में खेतों में अभूतपूर्व खूनखराबा हुआ है। हम नहीं कह सकते कि भारत में जिस तरह की कृषि अनुसंधान और शिक्षा व्यवस्था जारी है, उस पर भयावह कृषि संकट की जिम्मेदारी नहीं है।

एक देश में, जहां कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में दुनिया का सबसे विशाल सार्वजनिक ढांचा है, किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं और कृषि को त्यागने पर विवश हैं? अगर कृषि अनुसंधान और शिक्षा में अमेरिकी माडल इतना ही अच्छा है तो किसान आज विपत्ति में क्यों हैं और कृषि बर्बादी के कगार पर क्यों पहुंच गई है। एक राष्ट्र के रूप में हमें इसकी पड़ताल करनी चाहिए और पीछे मुड़कर देखना चाहिए। इसमें कुछ बुनियादी गड़बड़ी है। कृषि, चिकित्सा विज्ञान, इंजीनियरिंग या प्रबंधन क्षेत्र कोई भी हो, हमें सिखाया जाता है कि हम जो भी करते हैं वह निम्न स्तरीय, पिछड़ा और बेकार है। ऐसे में हमारे पास विकास का पश्चिमी माडल अपनाने के अलावा कोई चारा नहीं बचता, यहां तक कि प्रबंधन के क्षेत्र में भी। हमारे इंडियन इंस्टीट्यूट फार मैनेजमेंट और आईआईटी भी यही कर रहे हैं। ये संस्थान जनता के पैसे से निजी क्षेत्र के लिए छात्रों को शिक्षित करते हैं। मैं अकसर सोचता हूं कि अगर आईआईएम के छात्र को निजी क्षेत्र में ही जाना है तो उद्योग जगत इन संस्थानों को वित्तीय सहायता क्यों नहीं प्रदान करता? इन संस्थानों के वित्तीय पोषण के लिए करदाताओं का पैसा क्यों खर्च होना चाहिए?

भारत में ऐतिहासिक शुचिता की बेहद जरूरत है। आईआईएम और आईआईटी जैसे संस्थानों से पैसा बचाकर कृषि व स्वास्थ्य के क्षेत्र में श्रेष्ठ केंद्र स्थापित करने में खर्च किया जा सकता है। आयातित जोखिमभरी और गैरजरूरी प्रौद्योगिकी के बजाए कृषि विश्वविद्यालयों की पुनर्र्सरचना की आवश्यकता है, ताकि ये किसानों के लिए अधिक सार्थक व उपयोगी बन सकें और विद्यमान टिकाऊ प्रौद्योगिकी में सुधार लाया जा सके।

भारत में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह अमेरिकापरस्त हैं। वे रहते तो भारत में हैं किंतु सपने अमेरिकी देखते हैं। वे भारत में उच्च शिक्षा व्यवस्था में खामियां तलाशते हैं और दोयम दर्जे के अमेरिकी, यूरोपीय और आस्ट्रेलियाई कालेज व विश्वविद्यालयों के देश की शिक्षा व्यवस्था पर छा जाने में कुछ गलत नहीं मानते। कोई भी शिक्षा व्यवस्था में सड़न को दूर नहीं करना चाहता। यह सड़न दोयम दर्जे के विदेशी विश्वविद्यालय आयात करने से दूर नहीं होगी। आप एक बुराई को दूसरी बुराई से खत्म नहीं कर सकते। देश के सामने पहली चुनौती विद्यमान उच्च शिक्षा व्यवस्था का कायाकल्प करना है। इसकी शुरुआत शैक्षिक पाठ्यक्रम के साथ-साथ शिक्षकों के आकलन की प्रक्रिया में मूलभूत बदलाव लाकर की जा सकती है। साथ ही, पाठ्यक्रम को इस रूप में पुनर्निधारित किया जाना चाहिए कि यह भारत की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।

हम इसे पसंद करें या न करें, आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी शिक्षकों का स्तर भयावह रूप से गिरा हुआ है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो अधिकांश उपयुक्त मानदंडों पर खरे नहीं उतरते। उपकुलपतियों का हालत तो और भी दयनीय है। पिछले 15 वर्षो से मैं ऐसे उपकुलपति की तलाश में हूं, जो विश्वास पैदा कर सके। उच्च शिक्षण संस्थानों में इस कदर कमजोर अध्यक्षों के रहते चमत्कार की आशा करना बेमानी है। कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण चुनौतियों से कन्नी काट रहे हैं। वह कारपोरेट खेल में शामिल हो गए हैं जो बी ग्रेड के विदेशी विश्वविद्यालय तक ऐसे छात्रों की पहुंच बनाना चाहता है, जिनके पास पैसा है। हम पहले ही देख रहे हैं कि जो छात्र प्रतिष्ठित भारतीय संस्थानों में प्रवेश नहीं ले पाते हैं वे विदेशी विश्वविद्यालयों का रुख करते हैं।

[देविंदर शर्मा: लेखक कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं]

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